मोतिहारी। महात्मा गांधी केंद्रीय विश्वविद्यालय के कुलपति डॉ. संजीव शर्मा शिक्षक के रूप में अपनी नियुक्ति से लेकर कुलपति के वर्तमान पद पर अपनी नियुक्ति तक विवादों में डूबे रहे हैं। कभी उन पर आरक्षित कोटे की नौकरी खा जाने का आरोप लगा है, तो कभी महिला उत्पीड़न के मामले में उन्हें बदनामी झेलनी पड़ी है। मेरठ विश्वविद्यालय में विभिन्न पदों पर रहते हुए किए गए भ्रष्टाचार आज तक उनका पीछा नहीं छोड़ रहे हैं। यहाँ तक कि कुलपति बनने के लिए अपेक्षित न्यूनतम दस सालों का प्रोफेसर पद का अनुभव तक उनके पास नहीं है। इस सबके बाद भी तमाम नियमों को ताक पर रखकर महात्मा गांधी केंद्रीय विश्वविद्यालय का कुलपति उन्हें बना दिया गया। किंतु गांधी के नाम पर बने इस विश्वविद्यालय को भी उन्होंने नहीं छोड़ा।
अपने कार्यकाल में जहाँ उन्होंने मनमाने ढंग से कई नए विभाग खोलकर कई शिक्षकों की अवैध नियुक्तियाँ की हैं, वहीं पीएच.डी. प्रवेश में कई विभागों में नियमों का उल्लंघन करवाया है। आरक्षण के साथ छेड़छाड़ के तो असंख्य उदाहरण हैं। कुलपति शर्मा अपने काले कारनामों में किस हद तक जा सकते हैं, इसका सबसे ज्वलंत उदाहरण है – लॉकडाउन के पिछले एक साल में एक के बाद एक 16 केंद्र खोल देना। जहाँ इस विश्वविद्यालय का न अपना कोई मुक्कमल भवन है और न कोई मुक्कमल परिसर, जहाँ लगभग पूरा विश्वविद्यालय ही किराए के भवनों और किराए के गोदाम में चल रहा है, वहाँ ऐसी क्या मजबूरी थी कि लॉकडाउन के दौरान एक साल में ही 16 केंद्र खोल दिए गए। इनमें से ज्यादातर केंद्र अपना कोई भौतिक अस्तित्व तक नहीं रखते हैं। इनमें न कोई स्थायी शिक्षक है और न आधारभूत संसाधन। किसी-किसी केंद्र का बोर्ड तो रसोईघर और गोदाम कक्ष तक में लगा दिया गया है। कुलपति की इन कारस्तानियों पर दिसंबर के पहले सप्ताह में जब इंडियन एक्सप्रेस और जनसत्ता समेत विभिन्न समाचारपत्रों में खबरें छपने लगीं तो विश्वविद्यालय से लेकर यूजीसी और शिक्षा मंत्रालय तक में हड़कम्प मच गया। आनन-फानन में विश्वविद्यालय से पूछा गया कि अपना कार्यकाल खत्म हो जाने के बाद भी कुलपति महोदय केंद्र खोलने जैसे नीतिगत निर्णय कैसे ले सकते हैं। पता यह भी चला है कि इन केंद्रों के लिए विद्वत परिषद (अकादमिक काउंसिल) और कार्यकारी परिषद (एक्जीक्यूटिव परिषद) की अनुशंसा तक नहीं ली गई है। इंडियन एक्सप्रेस द्वारा इस संदर्भ में बार-बार कुलपति और विश्वविद्यालय के विभिन्न पदाधिकारियों से स्पष्टीकरण माँगा गया था लेकिन इन लोगों के पास कहने के लिए कुछ होता तो वे जबाव देते। वैसे विगत के अनेक मामलों की जैसे इस बार भी कुलपति शिक्षा मंत्रालय और यूजीसी की आँखों में धूल झोंकने की फिराक में है। पता चला है कि 23 दिसंबर को कुलपति महोदय कार्यकारी परिषद की एक बैठक बुलाने जा रहे हैं जिसमें वे कार्यकारी परिषद के सदस्यों को गफलत में डालकर इन केंद्रों की अनुशंसा कराना चाहते हैं ताकि इस पूरे मामले की लीपापोती की जा सके। नियमानुसार ऐसी किसी बैठक के आयोजन से कम से कम दो सप्ताह पूर्व मंत्रालय और यूजीसी को बैठक का एजेंडा प्रेषित करना जरूरी होता है लेकिन कुलपति जी की बाजीगरी देखिए कि उन्हें इतनी जल्दी है कि उन्होंने समय रहते मंत्रालय और यूजीसी को एजेंडा तक प्रेषित नहीं किया है। आखिर क्या वजह है कि कुलपति मंत्रालय और यूजीसी को अंधेरे में रखकर यह बैठक करना चाह रहे हैं ? कारण है कि अपना कार्यकाल खत्म हो जाने के बाद कुलपति कोई भी नीतिगत निर्णय नहीं ले सकते हैं और न तद्विषयक विद्वत परिषद और कार्यकारी परिषद की बैठकें आयोजित कर सकते हैं। अब चूँकि विश्वविद्यालय को इन केंद्रों को लेकर लीपापेती करनी है, तो कुलपति के लिए कार्यकारी परिषद की बैठक बुलाना जरूरी हो गया है। राज़ की बात यह है कि इस बैठक के एजेंडे में कहीं भी सीधे-सीधे यह प्रस्तावित नहीं है कि इन केंद्रों की मंजूरी कार्यकारी परिषद से ली जानी है। इसकी बजाय स्टैच्यू संख्या 40 में संशोधन के प्रस्ताव की बात कही गई है। ध्यातव्य है कि स्टैच्यू संख्या 40 संकायों, विभागों और केंद्रों की स्थापना से संबंधित है। अब चूँकि अस्थायी कुलपति को नीतिगत निर्णय का अधिकार नहीं है, तो वह फिर किस अधिकार से स्टैच्यू 40 में फेरबदल का प्रस्ताव कार्यकारी परिषद में रख सकते हैं ? 9 अक्टूबर 2021 को आयोजित विद्वत परिषद की नवीं बैठक के कार्यवृत्त की मंजूरी भी इस प्रस्तावित कार्यकारी परिषद की बैठक में ली जानी है। यहाँ भी एक पेच है। विद्वत परिषद की उस बैठक में मसौदा संख्या 09.06 में दो केंद्रो को खोले जाने का निर्णय लिया गया था जबकि उनके लिए न अध्यादेश लाया गया था और न कार्यकारी परिषद की अनुशंसा थी। ये दो केंद्र भी उन 16 केंद्रों की सूची में हैं जिनको लेकर इंडियन एक्सप्रेस आदि ने विभिन्न आपत्तियाँ दर्ज़ की हैं। अत: कुलपति विद्वत परिषद की नवीं बैठक के कार्यवृत्त की मंजूरी के बहाने कार्यकारी परिषद से इन दोनों केंद्रों की भी अनुशंसा धोखे से करवाना चाहते हैं। गलत ढंग से खोले गए इन केंद्रों के अलावा इस कार्यकारी परिषद की बैठक में एक और गोलमाल कुलपति करवाना चाहते हैं। कुलपति ने विभिन्न विभागों के विभिन्न पाठ्यक्रमों में स्ववित्तपोषित / भुगतान वाली सीटों के नाम पर बिना किसी अध्यादेश (ऑर्डिनेन्स) और बिना विद्वत परिषद और कार्यकारी परिषद की अनुमति के ही कई विद्यार्थियों को प्रवेश दिलवा दिया। विभागाध्यक्षों ने अविवेकपूर्ण ढंग से प्रवेश के मापदंड और शुल्क भी तय कर लिए। इस संदर्भ में संकाय अधिष्ठाता समिति ने कुलपति के दबाव में अपने स्तर पर ही निर्णय लिया था जबकि इस प्रकार के नीतिगत मसलों के लिए यह समिति कोई सांविधिक प्राधिकरण नहीं है। इस संदर्भ में भी कुलपति और विश्वविद्यालय के खिलाफ यूजीसी समुचित कार्यवाही का आदेश जारी कर चुकी है। यही कारण है कि अब विभिन्न पाठ्यक्रमों में स्ववित्तपोषित / भुगतान वाली सीटों के तहत किए गए प्रवेश घोटाले पर पर्दा डालने के लिए कार्यकारी परिषद से इस विषयक अनुमोदन का प्रयास किया जा रहा है। यहाँ ध्यातव्य है कि इन सीटों पर आरक्षण भी लागू नहीं किया गया है। अपने कार्यकाल के दौरान बिना कार्यकारी परिषद की मंजूरी के लगभग 50 शैक्षणिक पदों पर कुलपति ने जो नियुक्तियाँ की थीं, उनमें कई नियुक्तियों में प्रथमदृष्टया धांधलियाँ नज़र आती हैं। ऐसे ही कुछ प्रोफेसरों और ऐसोसिएट प्रोफेसरों की सेवा संपुष्टि का प्रस्ताव भी कार्यकारी परिषद की इस बैठक वाले एजेंडे में रखा गया है। इस विश्वविद्यालय में आज-कल में जल्द ही नए कुलपति की नियुक्ति होने वाली है। अत: इन परिस्थितियों में वर्तमान कुलपति डॉ. संजीव शर्मा द्वारा आनन-फानन में कार्यकारी परिषद की बैठक बुला अपने काले कारनामों पर कार्यकारी परिषद की मुहर लगवाना एक बहुत बड़े षड्यंत्र का द्योतक है। केंद्रीय शिक्षा मंत्री तक को ठेंगे पर रखने वाले डॉ. संजीव शर्मा जैसे कुलपति इस बात का प्रमाण है कि भ्रष्ट, आपराधिक और अनैतिक चाल-चरित्र के लोग कैसे एक उभरते विश्वविद्यालय की भ्रूण हत्या करते हैं। यहाँ यह भी नहीं भूलना चाहिए कि ये कुलपति उन्हीं कुमार विश्वास के बड़े भाई हैं जिन्होंने इंडिया अगेंस्ट करप्शन वाले प्रायोजित आंदोलन में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया था। स्पष्ट है कि डॉ. संजीव शर्मा पर अभी तक ठोस कार्यवाही न होने के पीछे कुमार विश्वास का रसूख भी काम कर रहा है।